जगन्नाथ(श्रीकृष्ण) ,बलरामजी और सुभद्राजी
सौ साल बीत जाने के बाद,जगन्नाथ(श्रीकृष्ण),बलरामजी और सुभद्राजी वृन्दावन आए। वहाँ गैया,ग्वाले,गोपियाँ,यशोदाजी,नँदबाबा सभी को प्रेमरस में पूर्णतः डूबा देखकर विस्मृत रह गए।सभी जीव,जन्तु,पक्षी एवं प्राणी सुध-बुध खोकर आलौकिक प्रेमरस का पान कर रहे थे एवं श्रीकृष्ण नाम का जाप कर रहे थे।सभी गैया मिट्टी में लोट-लोटकर अश्रु बहा रहीं थीं।ये देखकर जगन्नाथ(श्रीकृष्ण) ,बलरामजी और सुभद्राजी द्रवित हो उठे।
कृष्णजी राधाजी के सम्मुख आए तो उन्हें देखते रह गए।राधाजी को अपनी सुध नहीं थी।वो संसार से बेखबर, श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबी हुईं, कृष्ण नाम जपने में तल्लीन थीं।उनकी ऐसी दशा देख कर कृष्णजी भी पूर्णतः प्रेमरस में डूब गए एवं उनके नेत्रों से अश्रुधारा फूट चली।
श्रीकृष्ण प्रेमरस में ईस कदर डूब गए की उनके हाथ-पैर पिघलने लगे।एेसा ही हाल बलरामजी और सुभद्राजी का भी था।
वृन्दावनवासियों ने उन्हें रथ में बिठाकर पूरे वृन्दावन का परिक्रमा किया।तभी से जगन्नाथ रथयात्रा की शुरूआत हुई।
कलयुग में जगन्नाथ(श्रीकृष्ण) ,बलरामजी और सुभद्राजी
मालवा के शासक,राजा इन्द्रद्युम्न को एक रात स्वप्न आया कि नदी में तैरता हुआ एक काष्ठ (लकडी का तना) आयेगा।उससे वो जगन्नाथ,बलरामजी और सुभद्राजी की मूर्ती बनवाए।
इस कार्य के लिए एक शिल्पी भी राजा के पास आएगा।वो शिल्पी ही जगन्नाथ,बलरामजी और सुभद्राजी की मूर्ती बनाएगा।
स्वप्न के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न नदी किनारे गए।वहाँ उन्हें काष्ठ (लकडी का तना) तैरता नज़र आया।
राजा वो लकडी का तना अपने महल ले आया।देवताओँ के शिल्पी विश्वकर्मा, रूप बदलकर, एक साधारण शिल्पी के रूप में राजा के पास आए।उन्होंने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वो बंद कमरे में मूर्तिर्याँ बनाएँगे और अगर कोई भी इस दौरान उस कक्ष में नहीं आएगा।
कई दिन बीत जाने पर भी (लगभग दो सप्ताह ),जब वो शिल्पी (विश्वकर्मा) कक्ष से बाहर नहीं आए तो राजा -रानी को चिंता होने लगी कि कहीं वो शिल्पी भूखे-प्यासे प्राण ना त्याग दे।इसी चिंता के कारण एक दिन उन्होंने कक्ष का द्वार खुलवा दिया।द्वार खुलते ही शिल्पी रूपी विश्वकर्मा अन्तर्ध्यान हो गए और मूर्ती अधूरी रह गई।उसी वक्त आकाशवाणी हुई कि मूर्तीयों को वैसे ही मंदिर में स्थापित करा दिया जाए।तब से जगन्नाथ,बलरामजी और सुभद्राजी की इसी रूप में पूजा होने लगी।
जगन्नाथ मंदिर का प्रमुख निर्माण राजा चोडगंगा देव (कोणार्क के सूर्य मंदिर और कई प्रमुख शैव मंदिरों के निर्माण के लिए जाना जाता है ) ने करवाया।12 वीं शताब्दी के अंत में उनके पोते अनंगभीमदेव द्वारा इसे पूरा किया गया था ।पुरी की जगन्नाथ मंदिर एक पवित्र वैष्णव मंदिर है ,जो भगवान जगन्नाथ को समर्पित है, और भारत के पूर्वी तट पर स्थित, ओडिशा राज्य में पुरी में स्थित है।
यह मंदिर एक महत्वपूर्ण तीर्थ है और विशेष रूप से भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों द्वारा तीर्थाटन किया जाता है ।यह तीर्थ चार धामों में से एक है। यह मंदिर अपनी वार्षिक रथ यात्रा या रथ महोत्सव के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवताओं को भारी और विस्तृत रूप से सुसज्जित रथों पर रखा जाता है।
अधिकांश हिंदु देवी देवताओं की छवि का निर्माण पत्थर या धातु से किया जाता है, परंतु जगन्नाथ की छवि का निर्माण लकड़ी से होता है। हर बारह या उन्नीस साल बाद इन लकड़ी की छवियां को नियमानुसार ,समारोहपूर्वक बदल दिया जाता है।
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की मंदिर में मुख्य रूप से पूजा की जाती है। । मंदिर की आकृति विज्ञान इन तीनों देवताओं को चित्रित करता है जो कि गोलाकार मंच या रत्नाबेदी पर स्थापित की गई है । सुदर्शन चक्र, मदनमोहन, श्रीदेवी और विश्वधात्री की छवि भी रत्नाबेदी पर रखी गई है। जगन्नाथ, बालभद्रा, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के प्रतीक पवित्र नीम से बने हैं, जिन्हें दरु ब्रह्मा कहा जाता है। मौसम के अनुसार देवताओं को विभिन्न प्रकार के गहने और जवाहरात में सजाया जाता है।
मंदिर के आक्रमण और वर्णन –
रक्ताबाहू द्वारा आक्रमण को ,मदलपंजी द्वारा, मंदिर पर पहला आक्रमण माना जाता है। 16 9 2 में, मुगल सम्राट औरंगजेब ने मंदिर का विध्वंस करने का आदेश दिया था, लेकिन स्थानीय मुगल अधिकारी जो इस काम को करने के लिए आए थे, उनमें किसी तरह से रिश्वत दी गई। मंदिर 1707 तक बंद रहा ।औरंगजेब की मृत्यु के बाद इसे फिर से खोला गया था।
Jagannath (Sri Krishna), Balramji and Subhadraji
After one hundred years passed, Jagannath (Sri Krishna), Balramji and Subhadraji visited Vrindavan. On reaching Vrindavan they saw everone including all the Gwalas, Gopis, Yashodaji and Nandbaba immersed in eternal love completely.
All the creatures including animals and birds were immersed in the divine supernatural love and chanting the name of Shri Krishna. All the cows were lying on the ground with tears flowing through their eyes . Seeing all these, the heart of Jagannath (Sri Krishna), Balramji and Subhadraji stirred up.
Krishnaji came in front of Radhaji and kept watching her. Radhaji was unaware of the world, as she was completely immersed in Shrikrishna’s divine love. she was engrossed in chanting the holy name of Sri Krishna. After seeing such a condition, Krishna was also completely immersed in this love and Tears started to flow through his eyes.
Shrikrishna was so deeply immersed in this divine love that his hands and feet started melting. It was also the case of Balramji and Subhadraji.
The people of Vrindavavan put them in a chariot and made a parikrama of Vrindavan.
That was the beginning of Jagannath Rath Yatra .
Jagannath (Shrikrishna), Balramji and Subhadaji in Kalyug
Raja Indradyuman, ruler of Malva,had a dream one night that a wooden log, floating in the river would come. He should make the idols of Jagannath, Balramji and Subhadraji from the wooden log.
A sculptor would also come to the king for this work. This sculptor will make the idols of Jagannath, Balramji and Subhadraji.
In Accordance to the dream, the King went to the river. There he saw the log (wooden stalk) floating.The king brought the log to his palace. Vishwakarma the Shilpi of the Gods, changed his form and came to the king as an ordinary artisan. He put a condition in front of the king that he would make idols in closed room and no one during that time will not come in the room.
Even after passing of several days (about two weeks), when the sculptor(Vishwakarma) did not come out of the room, King and Queen began to worry that the sculptor would die of hunger and thirst. They decided to have a look and opened the door. Once opened, The sculptor( Vishwakarma) disappeared and the idol remained incomplete. At that time, there was an Akashwani that the idols should be installed in the same temple. Lord Jagannath, Balramji and Subhadraji began to be worshiped in this form.
The major construction of Jagannath temple was initiated by Raja Chodganga deva(known for also building the Sun Temple of Konark and several major shaivism temples) and was completed by his grandson Anangabhimadeva in the late 12th century.
The Jagannath temple of Puri is a sacred vaishnava temple dedicated to lord Jagannath(Lord Krishn )and located on the eastern coast of India,at Puri in the state of odisha.
The temple is an important pilgrimage destination and is particularly visited by devotees of supreme Lord Krishna and is one of the chardham pilgrimages that anyone is expected to make in one's lifetime.
The temple is famous for its annual Rath yatra,or chariot festival ,in which the three main
temple deities are hauled on huge and elaborately decorted temple cars.The icons of most Hindus deities that are worshipped are made out of stone or metal, the image of Jagannath is wooden.Every twelve or nineteen years these wooden figures are ceremoniously replaced by using sacred trees,that have to be carved as an exact replica. The Gods Jagannath, Balabhadra and the Goddess Subhadra constitute the main trinity of deities worshipped at the temple.The temple iconography depicts these three Gods sitting on the bejewelled platform or the Ratnabedi in the inner Sanctum.The sudarshan chakra,detities of Madanmohan, sridevi and vishwadhatri are also placed on the Ratnadevi.The temple icons of Jagannath, Balabhadra,subhadra and sudarshan chakra are made from sacred Neem logs known as Daru Brahma.Depending on the season the deities are adorned in different garbs and jewels.
INVASIONS AND DESECRATIONS OF THE TEMPLE
The invasion by Raktabahu has been considered the first invasion on the temple by the Madalapanji.In 1692,Mughal emperor Aurangzeb ordered the demolition of the temple, but the local Mughal officials who came to carry out the job were somehow bribed out of it. The temple was merely closed. It was re-opened after Aurangzeb's death in 1707.